Saturday 1 April 2023

मेरी खाल की उल्टी तरफ से गिद्ध चुग रहा है मेरे होने के सहारे पुख्ता सबूत । धीरे-धीरे गिद्ध की चोंच अपने निशान छोड़ती जा रही है । भीतर के उन गड्ढों में से त्वचा के ऊपरी तरफ़ भाप उठती है। भाप ..सर्दियों में जैसी मुंह से निकलती है। ठीक वैसी ही भाप वो ठंडी भाप, त्वचा के रोम छिद्रों में से लकीर जैसी उठती है। मैं बचपन की वह बात याद करके खिलखिला देती हूं जब सर्दियों के दिनों में स्कूल बस का इंतजार करते हुए अक्सर होठों पर दो उंगली लगाकर धुआं निकालते हुए सोचती थी कि मै सिगरेट पी रही। और साथ-साथ डरती थी कि किसी ने देखा तो कितनी डांट पड़ेगी! वह बचपन की बात थी अब तो यह भी नहीं याद कि वह शग्ल किस को सिगरेट पीते देख कर आया होगा! बचपन की बात थी इसलिए तब यह भी नहीं पता था कि होठों के बीच से धुआं नहीं निकलता। दिल को जला कर उठने वाली भाप निकलती है। अब रोमछिद्रों से उठती भाप को देखते हुए सोचती हूँ, इस पीड़ा पर किस तरह की प्रतिक्रिया देनी है! खुश होना है कि रो देना है! और इस सब में , मैं प्रतिक्रिया देना ही भूल जाती हूँ। बस एकटक उन छिद्रों में से भाप का उठना देखती रहती हूँ। गिद्ध भीतर बंद हो गया है। अंदर अंदर घूम रहा है। उसे बाहर आने का रास्ता नहीं मिलता। कभी कभी गले में आकर अटक जाता है। तब बहुत तीव्रता से मेरे गले के अंदर चोंच मारने लगता है। मैं डॉक्टर से बोलती हूं शायद टॉन्सिल बढ़ गए हैं। गले में कांटे लग रहे हैं। डॉक्टर दवाई देता है और मैं खुद को समझा लेती हूँ कि यह है टॉन्सिल ही होंगे। ठीक हो जाएंगे। पर ऐसा हो नहीं पाता। फिर मैं दूसरे डॉक्टर के पास जाती हूँ। उससे कहती हूँ, इन दिनों आंख में से पानी बहना बंद नहीं होता। वह बोलता है आपकी उम्र बढ़ रही है। पढ़ने का काम ज्यादा है। नंबर आ गया है। आप चश्मा लगा कर रखा कीजिए। आंख में एलर्जी भी है। कहकर कुछ आई ड्रॉप्स और चश्मे का नंबर बढ़ा देता है। लगाती हूँ तो चक्कर आते हैं। कभी चश्मा उतार के देखती हूँ कभी बिना चश्मे के। समझ नहीं पा रही कि ज्यादा धुंधला कब दिखता है! चश्मे के साथ या चश्मे के बिना! और पानी आने की वजह क्या है! वह भी इतना गरम गरम पानी! गालों से बहते हुए गर्दन को पार करता हुआ, सीने के ऊपर हलचल मचा कर, नाभि तक उतर जाता है। मैं रसोई के सिंक वाला नल खोलकर खूब सारा पानी चेहरे पर तेज तेज छींटों सा मारती हूं और फिर सब जगह पानी पानी कर देने के बाद सबको कहती हूं गर्मी बहुत है न ! इसलिए ऐसे कर रही। सब मेरी बात मान जाते हैं और मैं खुद यह मान लेती हूँ कि सच में आंखें कमजोर हो गई हैं। सुबह उठ कर पाती हूँ कि आंखों के दोनों तरफ़ कनपटी पर लकीरे बन गई हैं । मैं अब सोचने लगती हूँ क्या नींद में सोते हुए भी पानी बह रहा था ! फिर मैं उठकर काम काम बहुत सारा काम करने लगती हूँ। थक कर बेटी के पास आकर बैठ जाती हूँ। कुछ बात की हूक उठती है तो बेसिर पैर की बात , पैर की बात से शुरू करती हूँ। उसे कहती हूँ पैर मुरझाने लगे हैं। दरारे साफ दिख रही हैं। मैं बेटी से पूछती हूँ पैर खराब होने लगे हैं ना? वह कहती है नहीं तो मम्मा! मुझे तो ठीक लग रहे हैं। मैं आंखें फाड़ कर अपने पैरों की तरफ देखती हूँ फिर असमंजस में पड़ जाती हूँ। मुझे क्यों ठीक नहीं लग रहे। मुझे तो ऐसा लग रहा है की खूब सारी दरारें पड़ गई हैं! जिनमें से कीकर के पौधे उग रहे हैं।पर मुझे इन पौधों में गुड़हल के फूल की लाल रक्तिम पत्तियां दिखती हैं। मैं अपने पैरों पर इठला जाती हूँ। फिर सोचती हूँ, बेटी को जो दिख रहा है वही सही होगा। वैसे भी लोग कहते हैं कि पैरों में तो छाले पड़ते हैं। मैं अपने पैरों के गुड़हल वाले कीकर पर गुमान करती हूँ। खुश होती हूँ।फिर से एक बार खुद को समझा लेती हूँ। यह कहानी किसी स्त्री और पुरुष की नहीं है। यह कहानी हर उस इंसान की है जिसके पास कहने को अबूझ भावनाएं हैं पर जिन की अभिव्यक्ति , उपलब्ध शब्द कोष में है ही नहीं। हम पर सामान्य दिखने और स्वीकृत मापदंडों पर खरा बना रहने का इतना दबाव बनाया जाता है कि हम अपने असाधारण ओरिजिनल सेल्फ को भूल कर या दबाकर, प्रचलित मानकों के हिसाब से आचरण करते करते पूरी तरह से फेक हो जाते हैं। विडंबना है है तो है क्या कीजे! ---- सुम्मी लौट लौट के घूम आती है फिर वही बात...है तो है.. क्या कीजे?

Wednesday 15 March 2023

ग्रेवडिगर

बीती रात से एक महीने पहले मेरी नज़र एश-ट्रे में पड़े अधजले सिगरेट के टुकड़े पर अटकी थी। जाने क्या बदा था उस आधे सुलगते सिगरेट के टुकड़े से मेरा। दूसरी सिगरेट उसकी अँगुलियों में थी और वह बेहद दिलकश लग रहा था। मैं अचानक बोल उठी, "तुमको पता है तुम काफी हैंडसम हो और तुम्हारे नैन नक्श भी बहुत खूबसूरत हैं।" "इरादा क्या है?" वह हँसते हुए बोला। "अगर मैं तुम्हारी तारीफ करती हूँ, तुम्हारे होठों की बनावट की, तुम्हारी घनी पलकों की तो इसका मतलब यह बिल्कुल भी नहीं है कि मुझे तुम्हारी होना है या तुम्हारे साथ सोना है। बात सिर्फ़ इतनी सी है, तुम एक सुंदर पुरुष हो , कम से कम चेहरे से तो। स्त्री की बात को डिकोड, पुरुष को जल्दबाज़ी में नहीं करना चाहिए। वैसे भी जो चेहरे से सुंदर हो वह मन से भी सुंदर है यह बिल्कुल भी ज़रूरी नहीं है पर इस बात का पता थोड़ा देर से चले तो यह ऐसी भी बुरी बात नहीं है। थोड़े भ्रम बने रहें तो दुनिया थोड़ी कम बदसूरत लगती है।" "तो तुम यह कहना चाह रही हो कि मैं शक्ल से सुंदर दिखता हूँ पर मन का काला हूँ?" "नहीं। मैंने सिर्फ़ इतना कहा कि पुरुष भी सुंदर हो तो मेक दैम ब्लश। पुरूष का शरमाना एक क्यूट बात है। और दुनिया में ऐसी प्यारी बातें कितनी कम होती हैं न!" वह बिना कुछ बोले ध्यान से मुझे देख रहा था। वह समझ गया था कि मैंने कम कहे में अनकहा बहुत कुछ कह दिया है। उसने फिर पूछा "रात हो रही है डिनर करोगी मेरे साथ?" "क्या खिलाओगे?" "तुमने कौन सा मुर्गे शुरगे खाने है यार। घास-फूस ही तो खानी है , बाकी जो चाहो।" मैंने कुछ देर उसकी तरफ देखा, मुस्कराई और कहा, "नहीं , आज मन नहीं है।" "कभी हाँ भी कर दिया करो।" उसने मेरी आँखों में झाँकते हुए बोला। मैं चौंकी क्योंकि वह 'हाँ' यकीनन खाने के लिए नहीं माँगा जा रहा था।मैंने दिल पर हाथ रख एक ठंडी आह भरी, "तुम क्या जानो, हाँ करने के कितने नुकसान उठाने पड़ते हैं दोस्त।" उसने हँसते हुए कहा, "कतई नौटंकी।" मैं भी हँस दी और कहा , "फिर कभी करेंगे साथ डिनर, फ़िलहाल चलती हूँ। " मुझे वहाँ रुकना असहनीय हो रहा था। मुझे अच्छे लगते हैं वह लोग जो मेरी हँसी पर यकीन करते हैं ।मुझे नफ़रत है उन लोगों से जो मेरी आँखें पढ़ लेते हैं। ----- सुम्मी

डायरी के दुःख

मैं कितना कुछ पढ़ती हूँ.. कितनी सुंदर पंक्तियाँ ज़ेहन में विस्फोट की तरह असर करती हैं और गहरे दिल में उतर जाती हैं। मैं डायरी उठाती हूँ और कलम भी कि इनको नोट कर लेती हूँ। फिर सोचती हूँ इस डायरी में बहुत सारी अजीब कुरूप बातें भी हैं, इसमें इन सुंदर बातों को.. प्रिय लेखकों की बातों को, क्या ही लिखना! किसी दूसरी सुंदर डायरी में लिखती हूँ। फिर बहुत सारा वक्त उस सुंदर डायरी को ढूँढने में गंवा देती हूँ और जमा की हुई डायरियों में से मुझे कोई भी डायरी पसंद नहीं आती। इस नापसंद आने के यूँ तो हज़ार कारण हो सकते हैं पर मैं यह जानती हूँ कि जीवन की बेतरतीबी ने मेरे भीतर कहीं यह भर दिया है कि दर्ज़ करने से भी दरअसल हूबहू वैसा ही दर्ज़ कुछ नहीं होता। दर्ज़ भी उतना और वैसा ही होता है जो भोगते हुए भीतर की परतों को छीज देता है और छूट जाता है उसकी धारियों में। पर बावजूद इसके यह पंक्ति यहाँ टाँग रही हूँ ' यह अजीब बात है, जब तुम दो अलग-अलग दुखों के लिए रोने लगते हो और पता नहीं चलता, कौन से आंसू कौन से दुख के हैं!' निर्मल वर्मा --- देर रात बिल्लियों के चीखने की आवाज़ आती है। पर मेरी नींद उनके चीखने से नहीं खुलती। मेरी नींद खुलती है उस झटके से जो नींद में गिरगिट के मेरे सीने पर कूद जाने से महसूस हुआ। बिल्लियों के चीखने की आवाज़ बाद में सुनाई देती है। गिरगिट एक ठहरी हुई परिस्थिति है। मैं सोचती हूँ कि मेरे पास छूटे हुए लोगों की फ़ेहरिस्त होनी चाहिए थी पर नहीं है। जो दिल से निकला वह फिर निकल ही गया। अजीब है यह दिल भी कि फिर कभी मुलाकात हो और उसे ज़ार ज़ार रोता देखे तो उसको रोता देख, रोता तो है.. पर उतनी ही देर, जितनी देर उसे रोता देखे.. कि बात में बात यूँ भी है सच्चाई की कहानी के कम बड़े किरदार होते हैं और पत्थर हो जाते है वो दिल , जो चोट खाए बेशुमार होते हैं। ----- सुम्मी

Tuesday 24 January 2023

तुम्हारे आने का दिन

तुम्हारे आने का दिन/ और समय पता होने के बावजूद/ टकटकी बाँधे रखती हूँ दरवाज़े पर/ जैसे समय बीत जाएगा जल्दी/ और पलक झपकते ही/ किसी जादू की तरह/ तुम सामने खड़े होंगे/ इस अधीरता को/ मूर्खता भी कह देते हैं/ मेरे आस-पास वाले/ कि आँखों की/ बंदनवार बनाकर टांग देने से/ आने वाला/ जल्दी तो नहीं आ जाएगा!/ कहते हैं/ 'इतने में तो/ कितना कुछ किया जा सकता है!'/ मैं पलट कर कहती हूँ/ 'तुम्हें प्रेम करना,/ जीवन का सबसे सुंदर/ सार्थक उपयोग है।'/ ------ सुम्मी

मेरी खाल की उल्टी तरफ से गिद्ध चुग रहा है मेरे होने के सहारे पुख्ता सबूत । धीरे-धीरे गिद्ध की चोंच अपने निशान छोड़ती जा रही है । भीतर के उन...